يا
أُمَّ عوفٍ
لمحمد
مهدي
الجواهري |
يُـــدنـيـنَ
أهـــــواءنا
القصوى
ويُقصينا |
يا
( أم عوفٍ )
عــجــيــبـــاتٌ
ليــاليــنا |
|
يُنزلن
ناســـاً
على
حـــكـــــمٍ
ويعلينا |
في
كـــل
يـــومٍ بلا
وعـــيٍ ولا
سببٍ |
|
عــــــذباً
بــعــلــقــم
دمـعٍ في
مآقينا |
يَدفن
شــــهــدَ
ابتسامٍ في
مراشفنا |
|
*** |
*** |
|
لنا
المـــقــاديــرُ
مــــن
عُقبى
ويدرينا |
يا ( أم
عوفٍ )
ومــــا
يُـــدريك
ما خبأت |
|
تَطوافُنا
.. ومــــتى
تُلقى
مـــراسينا؟ |
أنَّــى
وكـــيـــف
ســيرخي من
أعنتنا |
|
بيتٌ
من (
الشَـــعَـــرِ
المفتول )
يؤوينا |
أزرى
بأبيات
أشـــعـــــارٍ
تـــقاذفـــــنا |
|
فــتــجــتــويــنــا
..
ونُعــلــيـها
فتُدنينا |
عِـــشـــنـا
لها
حِـــقــبــاً
جُلى
ندلَّلُها |
|
وتـســتـقــي
دمــنا
مـحـضـاً
وتُظمينا |
تــقـــتــات
من لحـمــنا
غضاً
وتُسغِبنا |
|
*** |
*** |
|
هـــنا
وعــــندك
أضـــيافــــنا
تَلاقــيـنا |
يا ( أم
عــــــوفٍ )
بلوح الغيب
موعدنا |
|
فــي
كــلِّ
يــومٍ
بـمــومـــاةٍ
ويــرمــينا |
لم
يــبــرح
العــامُ
تِــلوَ
العــامِ
يَقــذِفنا |
|
مــصـــعِّـــــدين
بأجـــــواء
شــــواهينا |
زواحـــفاً
نــرتــمــي
آنـــاً ..
وآونــــــةً |
|
للـــريح
تـــنـشُرنا
حـــــيناً
وتـــطــوينا |
مُزعـــزعـــين
كـــأن
الجــــنَّ
تُسلمنا |
|
رأد
الضــحى
والنــدى
والرمل
والطينا |
حـــتى
نـــزلنا
بــســاحٍ
منك
مُحتضِنٍ |
|
للشــمــس
تجـــدع منه
الريح
عرنينا |
مفيئٍ
بالجــــواء
الطـــــلق
مُنصـــلتٍ |
|
والنـــجــم
يــســمـح
من أعطافه
لينا |
خِــلــتُ
الســمـــاء
بـها تهوي
لتلثمهُ |
|
كـــاد
التـــصـــرُّمُ
يــلـويــــه
ويــلــوينا |
فيه
عـــطـــفنا
لمــيدانِ
الصِّــبا
رسناً |
|
آه
عــــلى
عــــابثٍ
رَخْـــــصٍ
لماضينا |
يا ( أم
عـــــــــــــــوفٍ
) وما آهُ
بنافعةٍ |
|
شـــمـــس
الربــيــعِ
وأهدته
الرياحينا |
عــــلى
خـــضيــلٍ
أعـــــارته
طلاقتها |
|
بالمـــنِ
تــنــطِـــفُ
والســلوى
ليالينا |
ســـالتْ
لِطـــافـاً
به أصباحنا
ومشتْ |
|
حِـــــيــناً
..
ونـــعـــثرُ
في أذياله
حِينا |
ســـمـــحٍ
نجـــــرُ
بــه
أذيالنا
مــــرحاً |
|
وجـــــائرِ
القـــصـــدِ
ضِلِّيلٍ
ويــهـــدينا |
آهٍ
عـــلى
حــــائرٍ
ســــاهٍ
ويرشــــدنا |
|
ويــســـتــبـدَّ
بنا -
أقــصـــى
أمـــانينا |
آهٍ
عــــلى
مـــلــعــبٍ
- أن نستبدَّ
به |
|
نـــطــيـــر
رهوا بما
اسطاعت
خوافينا |
مـــثـــل
الطــيــورِ
وما ريشتْ
قوادمنا |
|
ومـــن
رفـــيـــف
الصِّــــبا
فـيه
أغانينا |
من
ضحكة
السَّحَرِ
المشبوبِ
ضحكتنا |
|
*** |
*** |
|
خــــيرَ
الطــــباعِ
وكــــاد
العقل
يردينا |
يا
أم
عــــــوفٍ وكاد
الحلمُ
يسلبنا |
|
مــن
التـجــاريـب
بِــعــناها
بعـشــرينا |
خــمــســون
زلــت
مــلـيئاتٍ
حقائبها |
|
كـــانت
، وآمــــنة
العـــقــبى
مهاوينا |
يا
( أم
عــــــــوفٍ
) بـــريئاتٍ
جــرائرنا |
|
مـــن
الفــحــاوي
ولا ندري
المضامينا |
نــســـتـــلهمُ
الأمــــرَ
عفواً لا
نخرِجُهُ |
|
كـــمـــا
يَــحُــــــــلُّ
تـــــلاميذٌ
تمارينا |
ولا
نـــعــانــي
طــــوِّياتٍ
مــعــقـــــدةً |
|
فــيمـا
تــصــرفــنـا
مــنـهـا
وتُــثـنـيـنـا |
نـــأتي
الــمـــآتـي
مــن تلقاء
أنفسنا |
|
أو
نـرتــدعْ
فـبــمـحــضٍ
مـن
نـواهـيـنا |
إنْ
نـنـدفــع
فـبـعـفـوٍ
مـن
نــوازعـــنــا |
|
غــدراً
..ولا
خــاتـلٌ
فــيـها
يــداجــــينا |
لا
الأرض
كــانت
مُــغــواةً
تــلــقــفــنا |
|
أو
ارتــكــضــنـا
أقــلّــتــنــا
مــذاكــيـنا |
إذا
ارتــكــســـنـا
أغــاثـتـنـا
مـغــاوينا |
|
عُـــدنا
غُـــزاةً ،
وإن طــاشت
مرامينا |
أو
انـصــببنا
عــلى
غــايٍ
نـحــاولـهــا |
|
أنَّا
نـخــاف
عـلـيــها
مـن
مــسـاويـــنا |
كانت
مــحـــاسننا
شتى ..
وأعظمُها |
|
وتـــقـــتــفــيها
عــلى
قــدْرٍ
مـعاصينا |
واليــومَ
لم تـألُ
تـسـتشري
مطامحنا |
|
وعـــاد
غـمْـــزاً
بـنـا مــا
كـان
يــزهونا |
يا
( أم عــوفٍ ) أدال
الدهــــرُ
دولتنا |
|
وغـــاب
نــجـــمُ
شــبـابٍ
كــان
يهدينا |
خــبا
مــن
العـــمـــر
نـــوءٌ كان
يَرزُمنا |
|
في
الهاجــــرات
فــيــرويـنـا
ويُصــفينا |
وغــاضَ
نــبــعُ
صـفا
كـنَّــا
نـــلـــوذ
به |
|
*** |
*** |
|
آهٍ
عــلـى
حــقــبــةٍ
كـــانـت
تـعـانـينا |
يا
( أم
عـــــــوفٍ
) وقد طال
العناء بنا |
|
كـــنا
نــجـول ُ
بـه غــراً
مــيـامــيــنـــا |
آه
عــلى
أيـمـنٍ مـن
ربــع
صــبـوتــنـا |
|
لا
بــد مــن
سَـحَـــرٍ
ثـــانٍ
يـــواتـيـنــا |
كــنا
نــقــول
إذا مـــا
فــاتــنــا
سَـحَرٌ |
|
ومــن
أصــيلٍ
عــلى
مـــهـــلٍ
يـحيينا |
لا
بــد من
مــطــلـعٍ
للشمس
يُفرحنا |
|
تـقـومُ
مـن بـعـده
عـجـلـى
نـــواعــينا |
واليـــوم
نــرقــبُ
في
أســـحارنا
أجلاً |
نقلاً عن موقع : " ألق الشعر ". |
صممت هذه الصفحة في 6 /11/2000 |
|